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उतेरा खेती भारत में एक नई और अनोखी तकनीक से खेती का महत्व

उतेरा खेती भारत में एक नई और अनोखी तकनीक से खेती का महत्व
उतेरा खेती भारत में एक नई और अनोखी तकनीक से खेती का महत्व

भूमि की उपयोगिता कम हो रही है और खेतों का बढ़ता दबाव हमें नई खेती तकनीकों की ओर मोड़ने पर मजबूर कर रहा है। इस मामूले में, उतेरा खेती एक सुनहरा अवसर प्रदान कर सकती है। विशेषकर ऐसे क्षेत्रों में जहां कृषि पूरी तरह से वर्षा पर आधारित है, और सिंचाई के साधनों की कमी है, वहां उतेरा खेती महत्वपूर्ण बन सकती है। वर्तमान मे देश की बढ़ती जनसंख्या को भोजन उपलब्ध कराने के लिये सघन खेती ही एकमात्र विकल्प बनता जा रहा है। देश मे बहुत से क्षेत्र ऐसे है जहां की कृषि पूरी तरह से वर्षा पर आधारित है तथा सिंचाई के सीमित साधन के कारण ही रबी मौसम में खेत खाली पड़ी रहती है अत: ऐसे क्षेत्रों के लिए सघन खेती के रूप मे उतेरा खेती एक महत्वपूर्ण विकल्प साबित हो सकती है। उतेरा खेती का मुख्य उद्देश्य खेत में मौजूद नमी का उपयोग अगली फसल के अंकुरण तथा वृद्धि के लिए करना है। उतेरा खेती के लाभों के अलावा, हमें इसके सही तरीके से अनुसंधान करने और प्रयोग करने की जरूरत है। बुआई से लेकर पैदावार तक, सभी कदमों में विज्ञानिक तथा तकनीकी जानकारी का सही इस्तेमाल करना हमारी उत्पादकता में सुधार कर सकता है।

क्या है उतेरा खेती तथा इसका चुनाव What is Utera farming and its selection?

उतेरा खेती में दूसरी फसल की बुवाई पहले ही कर दी जाती है, जिससे खेतों में नमी का सही उपयोग होता है। सही भूमि चयन और उचित खादों का प्रयोग से उत्तम पैदावार प्राप्त हो सकती है। भारी मृदा में जलधारण क्षमता अधिक होती है साथ ही काफी लम्बे समय तक इस मृदा में नमी बनी रहती है। टिकरा या उच्च भूमि उतेरा खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती है क्योंकि यह जल्दी सूख जाती है। उतेरा खेती के लिए कन्हार या मटियार दोमट जैसी भारी मृदा वाली खेत उपयुक्त रहती है। मध्यम तथा निचली (बहरा) भूमि का चुनाव करना चाहिए। मुख्य फसल के लिए मध्यम अवधि वाली धान की फसल अर्थात 100 से 125 दिनों में पकने वाली उन्नत प्रजाति का चुनाव करना चाहिए। लम्बे अवधि वाले धान फसल का चुनाव करने से उतेरा फसल को वृद्धि के लिए कम समय मिलता है तथा नमी के अभाव के कारण उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। धान की उन्नत तथा मध्यम अवधि वाली किस्में जैसे- दंतेश्वरी, आई. आर.-36, आई. आर.- 64, चंद्रहासिनी, इंदिरा राजेश्वरी, पूर्णिमा, एमटीयू-1010, पूसा बासमती इत्यादि की खेती खरीफ में मुख्य फसल के रुप में की जानी चाहिए। उतेरा फसल के रूप में अलसी, तिंवड़ा, मसूर, चना, मटर, लूसर्न, बरसीम आदि का चुनाव किया जा सकता है।

उतेरा खेती लगाने का समय एवं तरीका: उतेरा खेती धान की फसल मे की जाती है। धान की फसल कटाई  के 15-20 दिन पहले जब बालियां पकने की अवस्था मे हो अर्थात अक्टूबर के मध्य माह से नवम्बर के मध्य के बीच उतेरा फसल के बीज छिड़क दिये जाते है। बुवाई के समय खेत में पर्याप्त नमी होना चाहिए। नमी इतनी होनी चाहिए की बीज गीली मिट्टी में चिपक जाए। यहाँ ध्यान दें कि खेत में पानी अधिक न हो अन्यथा बीज सड़ जाएगी। आवश्यकता से अधिक पानी की निकासी कर देना चाहिये।
 
उतेरा फसल की बुआई में खाद एवं उर्वरक: तिलहनी फसलों के लिए नाइट्रोजन की अतिरिक्त मात्रा देने की आवश्यकता होती है। अतिरिक्त 20 किलो यूरिया का छिड़काव बुवाई के 25-30 दिन बाद करना चाहिए। तिलहनी फसलों के लिए नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, इसलिए बुआई से 25-30 दिन बाद 20 किलो यूरिया का छिड़काव करना आपकी फसल को और भी मजबूती प्रदान करेगा। दलहनी फसलों के लिए यूरिया 5 किलो, डी.ए.पी. 50 किलो, और पोटाश 15 किलो प्रति हेक्टेयर बोवारी के समय सही संघटन का निर्णय लेना बहुत महत्वपूर्ण है। गोबर की सड़ी खाद भी अच्छी तरह से भूरकाव कर देना चाहिए।   उतेरा फसल के लिए बीज दर को सामान्य अनुशंसित मात्रा से डेढ़ गुना अधिक लगाना चाहिए। उदाहरण के लिए, तिंवड़ा का अनुशंसित बीज दर 40-45 किलो प्रति हेक्टेयर है, जबकि उतेरा खेती के लिए 90 किलो प्रति हेक्टेयर बीज दर उपयुक्त है। प्रति हेक्टेयर क्षेत्रफल पैदावार बढ़ाने के लिए उन्नत किस्मों का चुनाव अत्यन्त जरूरी है। किसान बंधु यदि मुख्य फसल धान जैसा ही उतेरा फसल के खेती पर ध्यान दें तो निशिचत रूप से प्रति इकाई क्षेत्रफल मे पैदावार बढ़ेगी।

उतेरा फसल में खरपतवार नियंत्रण:तिलहनी फसलो मे खरपतवार नियंत्रण के लिये आक्साडाइजोन (500 ग्राम सकि्रय तत्व) की 2 लीटर मात्रा को बोने के 3 दिन के अंदर छिड़काव करना चाहिये  या आइसोप्रोटयूरान की 2 लीटर मात्रा को अंकुरण के 15 दिन बाद प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। दलहनी फसलो जैसे मटर, चना, मसूर, तिंवड़ा आदि मे खरपतवार नियंत्रण के लिये पेंडीमेथलीन की 1 लीटर मात्रा को बोने के 3 दिन के अंदर छिड़काव करना चाहिये।कीटो मे मुख्य रूप से पत्ती खाने वाली इलिल्यां या फली भेदक इलिलयां, माहो एवं थि्रप्स का प्रकोप होता है। इलिल्यो के नियंत्रण के लिये मेलाथियान 2 मि.ली.ली. पानी के हिसाब से घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये। माहो एवं थ्रिप्स के नियंत्रण के लिये रोगार या मेथाइल आक्सी डेमेटान की 2 मि.ली. मात्रा प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिये।

उतेरा खेती से लाभ:

  • इससे अन्य सघन खेती से कम लागत में अधिक उपज होती है।
  • नमी का पूर्ण उपयोग होता है और भूमि परती नहीं रहती, जिससे अधिक फसलों को अधिक समय मिलता है।
  • इससे खेतों में नत्रजन का सही स्तर बना रहता है, जिससे अन्य फसलों के लिए खाद की आवश्यकता कम होती है।
  • कम लागत मे ही दलहनी एवं तिलहनी उतेरा फसल का अतिरिक्त उपज प्राप्त होता है। अर्थात अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त होता है।
  • इस पद्धति से खेत में मौजूद नमी का पूर्ण उपयोग हो जाता है एवं खेत भी परती नही रहता जिससे भूमि का सदुपयोग हो जाता है।
  • तिलहनी फसलों से तेल के साथ-साथ कार्बनिक खाद के रूप मे खली की प्रापित होती है।

उतेरा खेती मे सावधानियाँ कैसे बरतें: बीज बुवाई के समय खेत में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए, ताकि बीज सड़ जाएं।अत जल निकासी की समुचित प्रबंध करना चाहिये। उत्तम फसल की चयन में ध्यान रखें और सही खादों का प्रयोग करें। चना तथा तिंवड़ा उतेरा फसल की शीर्ष कलिका भाग को तोड़ देना चाहिए ताकि अधिक शाखाएं एवं फलियां आ सके।

निष्कर्ष: उतेरा खेती से प्राय सभी किसान भाई  पहले से परिचित होंगे, लेकिन इनसे जुड़े वैज्ञानिक पहलूओं तथा आधुनिक जानकारियों के अभाव के कारण उनका पैदावार काफी कम है। अत: पैदावार बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक उन्न्त तरीकों व जानकारियों का ज्ञान एवं व्यापक उपयोग अति आवश्यक है।

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